विधवा बहू भी अपने ससुर से मांग सकती है गुजारा-भत्ता! जानिए क्या कहता है High Court
Haryana Update, Court Rule : विधवा बहू अपने ससुर से गुजारा भत्ता मांग सकती है या नहीं, इसे लेकर मप्र हाईकोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया है। आइए जानते हैं इस मामले में कोर्ट ने क्या कहा पूरी जानकारी। मप्र हाईकोर्ट ने हाल ही में फैसला सुनाते हुए कहा कि ससुर को अपनी विधवा बहू को गुजारा भत्ता देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
यह फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 या मुस्लिम पर्सनल लॉ (बशीर खान बनाम इशरत बानो) का हवाला दिया। बार एंड बेंच की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस हृदयेश ने यह टिप्पणी एक व्यक्ति की याचिका को स्वीकार करते हुए की, जिसे ट्रायल एंड सेशंस कोर्ट ने अपनी विधवा बहू को 3,000 रुपये मासिक गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया था। व्यक्ति ने इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की थी। याचिकाकर्ता के वकील ने कोर्ट को बताया कि याचिकाकर्ता एक बुजुर्ग व्यक्ति है और चूंकि वह मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखता है, इसलिए मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत उसे अपनी विधवा बहू को गुजारा भत्ता देने की कोई बाध्यता नहीं है। साथ ही वकील ने बताया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।
जिसके बाद कोर्ट ने याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाया। 24 अक्टूबर को दिए गए अपने फैसले में कोर्ट ने कहा, 'मुस्लिम कानून और घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, वर्तमान याचिकाकर्ता, जो प्रतिवादी का ससुर है, को प्रतिवादी को भरण-पोषण देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।'
रिपोर्ट के मुताबिक, याचिकाकर्ता के बेटे की शादी साल 2011 में हुई थी। लेकिन चार साल बाद साल 2015 में उसके बेटे की मौत हो गई और वह अपने पीछे अपनी पत्नी यानी याचिकाकर्ता की बहू को छोड़ गया। इसके बाद विधवा बहू ने अपने ससुराल वालों के खिलाफ घरेलू हिंसा का मामला दर्ज कराया और कोर्ट में अर्जी दाखिल कर अपने ससुर से अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए 40 हजार रुपये प्रतिमाह भरण-पोषण की मांग की।
महिला के ससुर यानी याचिकाकर्ता ने बहू की याचिका का विरोध किया। हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने महिला के पक्ष में फैसला सुनाया और ससुर को आदेश दिया कि वह अपनी विधवा बहू को हर महीने 3,000 रुपये दे।
ट्रायल कोर्ट के इस आदेश को चुनौती देते हुए ससुर ने सत्र न्यायालय में अपील की। लेकिन वहां भी उनकी अपील खारिज कर दी गई, जिसके बाद उन्होंने (याचिकाकर्ता) भरण-पोषण आदेश की सत्यता पर सवाल उठाने के लिए पुनरीक्षण याचिका दायर कर उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
हाई कोर्ट में याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि याचिकाकर्ता एक बुजुर्ग व्यक्ति है और चूंकि वह मुस्लिम समुदाय से है, इसलिए मुस्लिम कानून (मुस्लिम पर्सनल लॉ) के तहत उसे अपनी विधवा बहू को भरण-पोषण देने की कोई बाध्यता नहीं है।
याचिकाकर्ता के वकील ने अदालत को बताया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत भी ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। इस संबंध में शबनम परवीन बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले समेत कुछ अन्य उच्च न्यायालयों के फैसलों का भी हवाला दिया गया। याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता का बेटा जीवित है, जबकि बहू अभी भी अलग रह रही है। ऐसी स्थिति में याचिकाकर्ता ने दावा किया कि वह अपनी विधवा बहू को भरण-पोषण देने के लिए बाध्य नहीं है।
हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की दलीलों को सही पाया और कहा कि निचली अदालत ने याचिकाकर्ता को उसकी बहू को भरण-पोषण देने का आदेश देकर गलती की है। इसलिए याचिकाकर्ता की याचिका स्वीकार की जाती है और भरण-पोषण आदेश को रद्द किया जाता है।