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Trending Today: 5000 मुफ्त में अंतिम संस्कार कर चुके विकास की कहानी, महिला ठंड से कांप रही थी, शॉल दिया तो बेटे की लाश को ओढ़ा दिया

Trending Today: 'रात के 2 बज रहे होंगे, कड़ाके की ठंड थी। अचानक मोबाइल की घंटी बजी। हॉस्पिटल के गार्ड का फोन था।
 
5000 मुफ्त में अंतिम संस्कार कर चुके विकास की कहानी

Trending Today: उठाते ही दबी जुबान में आवाज आई, 22 साल के एक लड़के की मौत हो गई है। उसकी बूढ़ी मां है। शव को गांव पहुंचाना है। मैं शव वाहन लेकर पहुंचा, तो देखा कि वो बूढ़ी मां बेटे से लिपटकर बैठी है और ठंड से कंपकपा रही है।

 

लाश को लेकर गाड़ी में रखा, तो वो मां भी कंपकपाते हुए अपने बेटे के पास बैठ गई। मुझसे देखा नहीं गया। मैंने अपना शॉल और जैकेट लेकर उस बूढ़ी मां को पहना दिया। वह महिला बेटे के शव पर शॉल ओढ़ाते हुए बोली- इसे बहुत ठंड लगती है।’

 

‘एक बार अंतिम संस्कार के लिए शव वाहन लेकर गया था। जैसे ही शव को उठाकर गाड़ी में रखा, एक छोटी बच्ची पैर से लिपटकर जोर-जोर से रोने लगी। कहने लगी, आप नहीं ले जाएंगे, तो मेरे पापा यहीं रहेंगे। आप मेरे पापा को मत ले जाइए।

वैसे तो हर मृत्यु की अपनी अलग-अलग कहानी होती है, लेकिन ये दोनों वाकये मुझे नींद में भी याद रहते हैं।’

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब 60 किलोमीटर दूर विदिशा जिला है। हर दिन की तरह आज भी विकास पचौरी एक व्यक्ति के अंतिम संस्कार के लिए शव वाहन लेकर जा रहे हैं। गाड़ी के ऊपर ऊंची आवाज में बज रही ‘हे राम हे राम, प्रणाम… तुम्हें है अंतिम प्रणाम’ धुन के बीच हमारी बातचीत हो रही है।


सफेद रंग की शर्ट और नीले रंग की पैंट पहने विकास खुद गाड़ी चला रहे हैं। कोई ड्राइवर या सहयोगी नहीं। पहुंचने पर लोगों के साथ मिलकर अर्थी को कंधा दे रहे हैं। पार्थिव शरीर को उठाकर गाड़ी में रख रहे हैं। ये काम विकास बिना किसी पैसे के करते हैं। हर दिन 4-5 शवों का अन्तिम संस्कार करते हैं। अब तक 5 हजार से ज्यादा अन्तिम संस्कार कर चुके हैं।

विकास किसी की मौत को 'शांत' होना, अन्तिम संस्कार को 'सेवा' और शव वाहन को 'सेवा वाहन' कहते हैं।

शव वाहन में अन्तिम संस्कार के लिए पार्थिव शरीर को रखने के बाद हम शहर के मुक्तिधाम की तरफ बढ़ रहे हैं और विकास की जिंदगी में भी।


इसकी शुरुआत कैसे होती है?

विकास मुझे 2013-14 का किस्सा बताते हैं। कहते हैं, ‘घर में किराए पर एक फैमिली रहती थी। भाई जैसा संबंध था। एक दिन उनके पिता जी की मौत हो गई। वो शरीर से थोड़े हट्टे-कट्टे थे। श्मशान घाट दूर था।

कई फोन-कॉल एंबुलेंस, शव वाहन, जिला प्रशासन को किए गए, लेकिन कोई रिस्पॉन्स नहीं मिला। अंतत: हमें अर्थी को कंधे पर रखकर करीब 7 किलोमीटर तक चलकर आना पड़ा। रास्ते में एक-दो बार अर्थी टूटने-टूटने की हालत में आ गई।

मुझे उस वक्त लगा कि क्या हम अपने पूर्वजों को अंतिम विदाई भी सम्मान तरीके से नहीं दे सकते हैं? उन लावारिस लाशों के साथ क्या होता होगा? क्या उनका अन्तिम संस्कार उनके धर्म, रीति-रिवाज के मुताबिक होता होगा?


विकास आगे बताते हैं, 'अगले दिन मेरे छोटे भाई ने अचानक से आकर कहा, आप शहर-शहर घूमकर फ्री में जो ब्लड ग्रुप की जांच करते हैं, क्यों नहीं ऐसा कुछ करते हैं जिससे किसी की मौत होने पर उसका बिना किसी परेशानी के अन्तिम संस्कार किया जा सके।

तभी से मैंने ये काम शुरू कर दिया, जो आज तक चल रहा है। इसमें हर धर्म के लोग शामिल हैं। जिसे जरूरत होती है, उनके एक कॉल पर मैं हाजिर हो जाता हूं। चाहे वो हिंदू हो, मुस्लिम हो...।’

ये ब्लड ग्रुप जांच करने का क्या किस्सा है?

विकास थोड़ा ठहरने के बाद अपने भाव को समेटते हुए मुझे अपने बचपन के बारे में बताना शुरू करते हैं। वो कहते हैं, ‘पापा कहने को तो फॉरेस्ट डिपार्टमेंट में थे। सरकारी बाबू थे, लेकिन घर की स्थिति बहुत खराब थी। उनका फोकस काम से ज्यादा अध्यात्म पर होता था।

दिनभर उनका पूरा समय पूजा-पाठ में ही चला जाता था। उनके सीनियर ऑफिसर्स पंडित समझकर कुछ रुपए भिजवा देते थे, बाकी की सैलरी वो लोग रख लेते थे। मैं भी पढ़ने-लिखने में जीरो था। दिनभर इधर-उधर घूमता-फिरता था, मार-पीट और झगड़े में ही समय बीत जाता था।

8वीं तक तो जैसे-तैसे पास होता चला गया, लेकिन 9वीं में फेल हो गया और फिर मैंने पढ़ाई छोड़ दी। घर में बड़ा बेटा था, घर चलाने का बोझ मेरे ऊपर आने लगा। जिसके बाद मैंने छोटे-छोटे काम करने शुरू किए। कुछ साल तक पतंग बेचा, फिर दुकान-दुकान जाकर सुपारी। फिर शहर की दीवारों पर रंगाई-पोताई का काम करने लगा।

वो बताते हैं, रंगाई-पोताई के दौरान ही दीवारों पर विज्ञापन लिखने लगा, फिर होर्डिंग लगाने का काम। धीरे-धीरे बिजनेस ग्रो करने लगा। मैंने होर्डिंग लगाने का टेंडर लेना शुरू कर दिया। मध्य प्रदेश के कई शहरों में काम मिलने लगे। 2000 का साल बीत रहा था, मेरी शादी हो गई। जिसके बाद मुझे लगा कि अब अपने शहर में ही कोई काम करूं।

घर के पास ही एक कॉलेज है। मैंने फोटो स्टेट की छोटी सी दुकान खोल ली। कुछ साल बाद कॉलेज के बच्चे जब कैमरा रखने और फोटो खींचने की सलाह देने लगे, तो मैंने स्टूडियो सेटअप कर लिया।

6-7 साल तक ये सब चलता रहा, इसी बीच मुझे लगा कि शहर में कौन जानता है विकास पचौरी को? किसी फील्ड में विश्व रिकॉर्ड बनाने की लालसा जागने लगी। मैंने सोचा कि लोगों को अपने ब्लड ग्रुप के बारे में अमूमन पता ही नहीं होता है और इस वजह से यदि अचानक उन्हें ब्लड की जरूरत होती है तो फिर दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।

मैंने एक टेक्नीशियन को हायर कर गली-मोहल्लों में घूम-घूमकर फ्री में ब्लड ग्रुप जांचना शुरू कर दिया। मैं एक कार्ड लोगों को देता था, जिस पर उनका ब्लड ग्रुप लिखा होता था। करीब 2 लाख से ज्यादा लोगों का ब्लड ग्रुप जांचा।’

हम दोनों बातचीत करते-करते मुक्तिधाम पहुंच चुके हैं। विकास अंतिम संस्कार की तैयारी में जुट जाते हैं। कुछ चिताएं ठंडी हो रही हैं, तो कुछ के अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही है।
उठते धुएं और आग की लपटों के बीच ऊंची आवाज में विकास कहते हैं, ‘कोरोना महामारी के दौरान जहां DM, ब्यूरोक्रेट्स ने हाथ खड़े कर दिए थे। हर रोज जितनी लाशें आ रही थीं, सभी का मैंने अंतिम संस्कार करवाया।’

ठंड में भी विकास के माथे से पसीना टपक रहा है।

कुछ घंटे के बाद अन्तिम संस्कार की पूरी विधि खत्म हो जाती है। इसके बाद फिर हमारी बातचीत शुरू होती है। इतने में उनके मोबाइल पर एक रिंग बजता है। उठाने पर आवाज आती है, कल सुबह अंतिम संस्कार के लिए चलना था। विकास जवाब देते हैं, ‘ठीक है आप एड्रेस और टाइमिंग मैसेज कर दीजिए। मैं समय से पहुंच जाऊंगा।’

फोन रखते हुए विकास कहते हैं, 'मैं 24 घंटे उपलब्ध रहता हूं। हॉस्पिटल में किसी की मौत हो जाती है, तो वहां के एडमिन कॉल करते हैं यदि एंबुलेंस या कोई दूसरी गाड़ी उपलब्ध नहीं है तो। प्रशासन को यदि कोई लावारिस लाश मिलती है, तो वो उसका अन्तिम संस्कार करने के लिए कॉल करते हैं।

मैंने आज तक किसी के अंतिम संस्कार के लिए ना नहीं बोला। मेरे कुछ और दोस्त भी हैं, जो समय पड़ने पर मदद के लिए भी आगे आते हैं।'

किसी ने कभी विरोध नहीं किया?

विकास की हंसी छूट जाती है। वो कहते हैं, 'आप विरोध की बात कर रहे हैं। मैं एक बार पिटते-पिटते बचा था। शुरुआत में जब मैंने ये सेवा शुरू की थी लोग राजनीति से जोड़कर इसे देख रहे थे। वो कहते थे, इसे नेता बनना है, इसलिए ये सब हथकंडे अपना रहा है।
वो कहते हैं, एक बार मैं शहर से करीब 40 किलोमीटर दूर गांव में गया था। 21 साल की एक लड़की की अचानक मौत हो गई थी। सुबह के 5 बजे तक वो ठीक थी और 7 बजे मेरे पास कॉल आया कि एक शव को गांव लेकर जाना है। उसके साथ सिर्फ बूढ़े मां-बाप थे।

मैं गांव पहुंचा, तो लोगों ने मुझे घेर लिया। कहने लगे, इसकी दो घंटे में कैसे मौत हो गई? तुम कौन हो? तुम यहां कैसे आए? पूरा गांव जमा हो गया। भीड़ बढ़ने लगी। मैं सोचने लगा कि यदि किसी ने भी एक थप्पड़ उठा लिया, तब तो मैं जिंदा नहीं बचूंगा। लोकल पुलिस की मदद से वहां से वापस आया।’

शाम होने को है। सूरज अपनी ढलान पर है। मैं विकास के साथ मुक्तिधाम से उनके स्टूडियों की ओर निकल पड़ता हूं। एक बड़े से ग्राउंड में मोटी-मोटी सूखी लकड़ियां रखी हुई हैं। मेरी नजर इन पर जाती है, उससे पहले विकास बोल पड़ते हैं।

'हमने इसको लेकर भी लोगों को अवेयर करना शुरू किया है। जीते जी तो हम एक पेड़ लगाते नहीं हैं और मरने के बाद अपने साथ एक पेड़ लेकर चले जाते हैं। वातावरण दूषित हुआ सो अलग। देहदान को लेकर भी मैंने अभियान छेड़ा है। अब तक 500 लोग बॉडी डोनेट करने का संकल्प ले चुके हैं, जबकि 18 मृत लोगों की बॉडी डोनेट भी हुई हैं।'
विकास की दो बेटियां हैं, जो राजस्थान में स्टडी कर रही हैं। वो कहते हैं, 'मेरी बेटियां और फैमिली ने हमेशा मेरा साथ दिया। कभी उन लोगों ने विरोध नहीं किया। जब तक दोनों बेटी यहां थीं, वो भी अन्तिम संस्कार में आती थीं।

हम दोनों फोटो स्टूडियो पहुंचते हैं। विकास की मां स्टूडियो के बाहर बैठी हैं। विकास कहते हैं, ‘मां ही सबसे ज्यादा परेशान रहती हैं कि मैं ये सब क्यों कर रहा हूं। किसी भी वक्त शव पहुंचाने और उनका अन्तिम संस्कार करने के लिए निकल जाता हूं। हालांकि, इन्हें तकलीफ तो होती है, लेकिन कभी मां ने विरोध नहीं किया या इस काम से रोका नहीं।

बॉडी डोनेशन पर मैंने 80 घंटा नॉन-स्टॉप बोलकर भी वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया है। सम्मानित करने के लिए साल 2019 में तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने हमें बुलाया था। जब मैंने अपनी मां को पूर्व राष्ट्रपति कोविंद से मिलवाया, तब उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।'

विकास की मां बोल पड़ती हैं, ‘बेटे पर मुझे गर्व भी होता है कि वो समाज के लिए जीता है। जहां बड़े-बड़े देशों के राष्ट्राध्यक्ष बैठते हैं, वहां हम लोगों ने बैठकर राष्ट्रपति के साथ भोजन किया। बातचीत की।’
यह फोटो विकास के स्टूडियो में लगा हुआ है। अचानक मेरा उनसे सवाल होता है। जब आप अंतिम संस्कार में होते हैं तो स्टूडियो कौन चलाता है?

विकास कहते हैं, '2014 में जब मैंने ये काम शुरू किया था, तब से पत्नी और स्टाफ ही स्टूडियो संभालते हैं। मुझे अब किसी की अंतिम विदाई करने में सबसे ज्यादा खुशी मिलती है।'

पूरी बातचीत करते-करते रात के 8 बज चुके हैं। तभी विकास का मोबाइल फिर बज उठता है। आवाज आती है, 'हॉस्पिटल से शव को गांव पहुंचाना है, एंबुलेंस वाले पैसे मांग रहे हैं।' विकास कहते हैं, 'मैं आता हूं। मेरा कोई चार्ज नहीं है।' जब तक मैं उनके साथ हूं, तीन कॉल आ चुके हैं।

जाते-जाते विकास कहते हैं, 'जो स्टूडियो से कमाता हूं, उसका एक हिस्सा लोगों की अंतिम यात्रा पर खर्च कर देता हूं।

क्योंकि मृत्यु ही अंतिम सत्य है...।'

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