सफलता की कहानी: विदेशों में बढ़ी गाजियाबादी 'मटके' की मांग, क्या है अभिषेक की Success Story
Ghaziabad Updates: नवरात्रों के बाद कौशांबी में रहने वाले अभिषेक ने जब खराब पड़े ‘मटके’ देखे तो उनके दिमाग में एक आइडिया आया. अभिषेक की कला की पहचान ना सिर्फ देश बल्कि विदेशों में बढ़ी है. इसके साथ ही रोजी रोटी भी मिलने लगी है.
कहां से हुई शुरुआत (where did it start)
भारत की पुरानी कलाकृति को दर्शाने के लिए अभिषेक ने खराब मटकों पर पेंटिंग बनानी शुरु की इससे मटके आकर्षित गमले में तब्दील हो गए.
इन मटकों में विलुप्त होती जा रही मंजूषा आर्ट और मशहूर मधुबनी आर्ट को दर्शाया जाता है.
खरीदार(BUYERS) चाहे तो अपने नाम या कोई खास मैसेज भी इन मटकों पर लिखवा सकते हैं.इसके अलावा भी विभिन्न रंग बिरंगे पैटर्न को मटकों पर बनाया जाता है
जिसकी भी नजर इन रंग-बिरेंगे गमलों पर जाती वो उसे खरीदने की इच्छा रखने लगा.
भारतीय कला का विदेशों में प्रचार(Promotion of Indian art abroad)

अभिषेक की कला की पहचान ना सिर्फ देश बल्कि विदेशों में बढ़ी है.अभिषेक द्वारा बनाए गए मटके की देश के साथ-साथ विदेशों से भी डिमांड आनी शुरू हो गई. .
विदेशों में स्विट्जरलैंड, पुर्तगाल, जर्मनी, रूस, यूक्रेन, कनाडा और अमेरिका में एक से डेढ़ हजार रुपए में यह गमले बिक जाते हैं.(These pots are sold abroad in Switzerland, Portugal, Germany, Russia, Ukraine, Canada and America for one to one and a half thousand rupees.)
अभिषेक बताते हैं कि 2 हजार से अधिक गमले विभिन्न देशों में भेज चुके हैं.अभिषेक की कला के कारण भारत की कलाकृति और संस्कृति विदेशों में अलग तरीके से पहचान बनाने लगी है
इनकी पेंटिंग की खासियत है कि यह पानी पड़ने पर भी खराब नहीं होते. विदेशों में इन गमलों की कीमत 10 गुना तक बढ़ जाती है
मधुबनी आर्ट और मंजूषा आर्ट से 80 महिलाओं को मिला रोजगार(women got employment from Madhubani Art and Manjusha Art)
अभिषेक बताते हैं कि गमलों पर पेंटिग्स बनाने के लिए सबसे पहले तो दिल्ली, नोएडा और गाजियाबाद में रहने वाली महिलाओं को ट्रेनिंग दी गई.
मधुबनी आर्ट और मंजूषा आर्ट के साथ-साथ दशकों पहले जो कलाकृति मंदिरों पर बनाई जाती थी उसको भी बनाने की ट्रेनिंग दी गई. अब करीब 80 महिलाएं नियमित रूप से 5 से 10 घड़े या मटकों पर पेंटिंग बना रही हैं.
यहां काम करने वाली महिलाएं 250 से 500 रुपये तक रोजाना कमा रही हैं. इन गमलों को कपड़े के थैले में पैक किया जाता है. गमलों को पैक करने वाली खोल भी इन्हीं महिलाओं के द्वारा सिला जाता है.
कुम्हारों के खिले चेहरे आए उनके भी बहार भरे दिन(The blooming faces of the potters came, they also had their full days outside)
कोरोना काल की मार झेल चुके कुम्हारों के पास काम धंधा लगभग ठप पड़ा हुआ है.
ऐसे में इन मटकों की बिक्री से कुम्हारों की भी रोजी रोटी चल जाती है.इन मटकोंं को किसी पूजा या फिर त्योहारों के समय पर ही खरीदा जाता है.
20 से 50 रुपये में खरीदते हैंं कुम्हारों से मटके(For 20 to 50 rupees, buy pots from potters)
अभिषेक गाजियाबाद और हरियाणा (बल्लभगढ़) के लगभग 50 कुम्हारों से 20 से 50 रुपये में (साइज के अनुसार) मटको को खरीद लेते हैं. जिस पर बाद में आकर्षित पेंटिंग की जाती है.